बड़का पंडित बोले…
“जा सो नीच बड़ाई पावा,
सो नर कबहुँ न सुधरिहि आवा।।”
– तुलसी बाबा ने तो पहले ही लिख दिया था।
अब मैं बस उस चौपाई में जी रहा हूँ।
जिसको मैंने पत्रकारिता सिखाई,
आज वो मुझे ही बेचने निकला है।
जिसके हाथ में पहली बार प्रेस कार्ड मैंने थमाया था,
आज वो मेरी ही कलम को दलाली कहता है।
क्या करें?
नीच जब बड़ाई पाता है, तो चिल्लाता नहीं, काटता है।
आज जिले के चांदी घाट और धौरहरा, तीरमऊ में हो रहे अवैध खनन की आवाज़ उठाई,
तो जिन्हें “रेत से रोज़गार” मिला था,
उन्हें बुरा लग गया।
मैंने पत्रकारिता को अपना धर्म माना —
उन्होंने पत्रकारिता को “डील” बना लिया।
मैंने सड़क की धूल से सच्चाई निकाली —
उन्होंने स्क्रीनशॉट से सौदेबाज़ी निकाली।
अब जबकि लोग जान चुके हैं कि
कौन पत्रकार है और कौन “पैसे वाला पर्चा-धारी” —
तो उन्हें मेरे चरित्र पर कीचड़ उछालने के सिवा कुछ नहीं सूझ रहा।
लेकिन याद रखो —
बड़का पंडित बिकाऊ नहीं है।
न ही डरने वाला है।
मैं रेत के धंधे में खड़ा होकर भी,
रेत की तरह बह नहीं जाता।
और हाँ,
जिस दिन “सत्य” को “सिस्टम” से बड़ा कह दिया मैंने,
उस दिन तुम जैसे नकली पंडितों की पोल भी खुली, और दुकाने भी बंद हुईं।