रामचरितमानस केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि भारतीय जनमानस की आत्मा है। यह महाकाव्य न केवल श्रीराम के जीवन का आदर्श चित्रण है, बल्कि हमारी भाषा, संस्कृति, और सामाजिक मूल्यों का भी अभिन्न हिस्सा बन चुका है। हिंदी में रचित यह अनुपम ग्रंथ जब महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी ने काशी नगरी में तैयार किया, तब शायद उन्हें भी यह अनुमान नहीं रहा होगा कि उनकी यह रचना आने वाले समय में संघर्ष, षड्यंत्र, चमत्कार और शिवस्वीकृति की पराकाष्ठा तक पहुँचेगी। रामचरितमानस एक भक्ति काव्य है, लेकिन इसके पीछे की कथा स्वयं एक मानव और ईश्वर के बीच के संबंध की जीवंत गाथा है।
जब रामचरितमानस की रचना पूरी हुई, तो तुलसीदास जी ने काशी में स्थित माता अन्नपूर्णा और भगवान विश्वनाथ को यह ग्रंथ प्रतिदिन श्रद्धाभाव से सुनाना आरंभ किया। धीरे-धीरे मानस की प्रसिद्धि पूरे क्षेत्र में फैलने लगी। जनमानस इसे सहज भाषा में रामकथा के रूप में समझने और आत्मसात करने लगा। लेकिन तुलसी की लोकप्रियता कुछ स्वार्थी, कथित विद्वान पंडितों को खटकने लगी। वे यह सोचकर विचलित हो उठे कि अगर यह अवधी भाषा में लिखा ग्रंथ लोगों में घर कर गया, तो उनकी संस्कृताधारित प्रभुता समाप्त हो जाएगी। ईर्ष्या और अहंकार के वशीभूत होकर उन्होंने रामचरितमानस और तुलसीदास की आलोचना आरंभ की। मामला इतना बढ़ गया कि अंततः यह तय हुआ कि ग्रंथों की श्रेष्ठता का निर्णय स्वयं काशी के ईश्वर — भगवान विश्वनाथ — करेंगे।
निर्धारित तिथि पर काशी विश्वनाथ मंदिर में सभी वेद, शास्त्र, उपनिषद, पुराण और तुलसीकृत रामचरितमानस को एकसाथ रखा गया और मन्दिर के पट बंद कर दिए गए। अगली सुबह जब पट खोले गए, तो आश्चर्यजनक दृश्य सामने था — रामचरितमानस के ऊपर “सत्यम शिवम सुंदरम” लाल चंदन से अंकित था। उपस्थित जनसमूह श्रद्धा से भर गया। “जय श्रीराम”, “तुलसीदास जी की जय” के नारे गूंज उठे और जिन पंडितों ने आलोचना की थी, वे मौन होकर मंदिर प्रांगण से बाहर निकल गए।
परंतु मानस का विरोध केवल वैचारिक नहीं था, वह षड्यंत्र की पराकाष्ठा तक पहुंचा। कुछ विरोधी पंडितों और मठाधीशों ने मिलकर रामचरितमानस को नष्ट करने की योजना बनाई। उन्होंने दो चोरों को तुलसीदास जी की कुटी के बाहर रात में भेजा, ताकि वे मूल प्रति चुरा सकें। लेकिन जब चोर वहां पहुंचे, तो देखा कि दो दिव्य युवक धनुष-बाण लिए कुटी के द्वार पर पहरा दे रहे हैं। भयभीत होकर वे लौट गए। अगले दिन उन्होंने तुलसीदास जी को सारी बात बताई और उनसे पूछा कि वे दिव्य प्रहरी कौन थे। तुलसीदास जी की आंखों में अश्रुधारा बह निकली। उन्होंने समझ लिया कि यह कोई साधारण दृश्य नहीं था — ये स्वयं भगवान श्रीराम और लक्ष्मण थे जो उनकी मानस की रक्षा के लिए सशरीर उपस्थित हुए थे। उन्होंने चोरों को आशीर्वाद देते हुए कहा कि “तुम धन्य हो, जिन्होंने प्रभु का साक्षात दर्शन किया।” वह दिन चोरों के जीवन का मोड़ बन गया, और वे तुलसीदास जी के अनन्य भक्त बन गए।
लेकिन विरोधियों की कुचालें खत्म नहीं हुईं। इस बार उन्होंने एक प्रबल तांत्रिक बटेश्वर से आग्रह किया कि वह रामचरितमानस और तुलसीदास जी को अपनी तांत्रिक विद्या से नष्ट कर दे। तांत्रिक ने मारण विद्या का प्रयोग कर कालभैरव को तुलसीदास की कुटी की ओर भेजा। किंतु जैसे ही कालभैरव वहाँ पहुंचे, उन्होंने देखा कि पवनपुत्र हनुमान गदा लिए कुटी के सामने खड़े हैं। यह दृश्य देखकर कालभैरव पीछे हट गए और तांत्रिक का ही विनाश हो गया। यह एक और चमत्कार था जो इस ग्रंथ की दिव्यता और ईश्वर-संरक्षण का प्रमाण बना।
इसके बाद भी जब संतों के झुंड को संतोष नहीं हुआ, तो वे उस समय के महान संत, न्यायशास्त्री और अद्वैत वेदांत के आचार्य श्री मधुसूदन सरस्वती जी के पास पहुंचे। उनसे निवेदन किया गया कि वे यह निर्णय करें कि यह ग्रंथ श्रेष्ठ है या नहीं। मधुसूदन सरस्वती जी ने रामचरितमानस मंगवाया और कई दिनों तक उसका गहन अध्ययन किया। अंत में उन्होंने अपने हस्ताक्षर सहित एक स्पष्ट टिप्पणी दी — “रामचरितमानस ही संसार का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है।” लेकिन ईर्ष्यालु संतों को यह भी स्वीकार नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि अंतिम निर्णय फिर एक बार भगवान विश्वनाथ के सामने होना चाहिए।
इसलिए पुनः एक बार वेद, शास्त्र, उपनिषद, पुराण, अन्य ग्रंथों को क्रम से रखा गया — सबसे ऊपर वेद, फिर उपनिषद, शास्त्र और सबसे नीचे रामचरितमानस। मंदिर के पट बंद कर दिए गए। प्रातः जब पट खुले, तो यह देखकर सभी स्तब्ध रह गए कि रामचरितमानस सबसे ऊपर था। यह दृश्य देखकर जनता तो हर्ष से भर उठी, लेकिन विरोधियों की गर्दनें झुक गईं। वहां उपस्थित सभी जनों ने उन्हें धिक्कारा और अंततः उन्होंने तुलसीदास जी से सार्वजनिक क्षमा याचना की।
इस समस्त घटनाक्रम के पश्चात काशी विश्वनाथ जी ने स्वयं रामचरितमानस और उसके रचयिता को अमरत्व प्रदान किया। आज भी गोस्वामी तुलसीदास की हस्तलिखित रामचरितमानस का अयोध्याकांड राजापुर, चित्रकूट में सुरक्षित है। प्रतिवर्ष हजारों श्रद्धालु उस स्थान पर दर्शन के लिए आते हैं और तुलसीकृत इस अमर रचना को अपनी श्रद्धा का केंद्र बनाते हैं।
रामचरितमानस केवल एक ग्रंथ नहीं, बल्कि भक्ति और सत्य का साक्षात प्रमाण है। यह भारतीय समाज में नारी सम्मान, मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्श, भ्रातृ प्रेम, निष्ठा, त्याग और धर्म के भाव को स्थापित करता है। इस ग्रंथ में वह शक्ति है जो करोड़ों लोगों को जोड़ती है, जो पंडित–अज्ञानी, राजा–रंक, स्त्री–पुरुष सभी को एक ही पंक्ति में लाकर बैठा देती है। यही कारण है कि यह ग्रंथ आज भी गली–गली, घर–घर, मन–मन में समाया हुआ है और शताब्दियों बाद भी इसकी लोकप्रियता, प्रमाणिकता और पवित्रता बनी हुई है।