उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जनपद में स्थित राजापुर कस्बा आज भी उस गौरवशाली स्मृति को अपने भीतर संजोए हुए है, जिसे महाकवि गोस्वामी तुलसीदास के नाम से जाना जाता है। यही वह भूमि है जहां रामचरितमानस जैसे लोकमहाकाव्य के रचयिता ने जन्म लिया, जिन्होंने जनभाषा में भक्ति, नीति और आदर्शों की गंगा बहाकर भारतीय समाज की आत्मा को नया प्रकाश दिया। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि जिस धरती से तुलसी की आवाज़ फूटी थी, वहां उनकी स्मृति में बना तुलसी स्मारक अब खुद अपने अस्तित्व को लेकर जूझ रहा है। यह स्मारक अब खण्डहर में तब्दील होता जा रहा है। यह स्थिति केवल एक भवन की जर्जरता का संकेत नहीं देती, बल्कि हमारी सांस्कृतिक चेतना के गिरते स्तर का भी प्रमाण है।
1955 में उत्तर प्रदेश सरकार ने तुलसीदास की स्मृति को स्थायी रूप देने के उद्देश्य से लखनऊ में तुलसी स्मारक समिति का गठन किया। उस समय यह निर्णय बेहद ऐतिहासिक था, क्योंकि यह केवल एक स्मारक निर्माण का फैसला नहीं था, बल्कि हिंदी साहित्य, लोकभाषा और सांस्कृतिक चेतना को राष्ट्रीय मंच पर प्रतिष्ठित करने की योजना थी। 1957 में राजापुर में स्मारक की आधारशिला रखी गई और इस पवित्र कार्य के लिए राजापुर के तुलसी प्रेमियों ने 35 बीघे भूमि दान की। यह दान किसी साधारण सहयोग का प्रमाण नहीं था, बल्कि यह उस भक्ति और श्रद्धा का प्रतीक था जो उस समय समाज में तुलसीदास के लिए जीवित थी। कई वर्षों की मेहनत और उत्साह के बाद 1960 में तत्कालीन मुख्यमंत्री सी. वी. गुप्ता ने इस स्मारक का उद्घाटन किया।
स्मारक के निर्माण का उद्देश्य केवल एक स्थूल भवन खड़ा करना नहीं था। यह एक ऐसा केंद्र बनना था जहां तुलसी साहित्य का गहन अध्ययन हो, शोधकार्य हो, विद्यार्थियों, अध्येताओं और साहित्यकारों को एक जगह मिले जहां वे तुलसी की रचनाओं की गहराई में उतर सकें। यही कारण था कि स्मारक में एक पुस्तकालय, शोधकक्ष, चित्र दीर्घा और तुलसी साहित्य संग्रहालय जैसी संरचनाएं बनाई गईं। भीतर की दीवारों पर रामचरितमानस के प्रसंगों को दर्शाने वाली कलात्मक चित्रकृतियाँ बनाई गईं, जो अपनी अद्भुत कलात्मकता और आध्यात्मिक भावबोध के कारण लोगों का मन मोह लेती थीं। यह स्मारक एक समय तक साहित्य, संस्कृति और भक्ति का केंद्र बना रहा, लेकिन समय बीतने के साथ इसकी चमक भी धुंधलाने लगी।
आज जब हम राजापुर के तुलसी स्मारक की स्थिति को देखते हैं तो एक गहरी निराशा हाथ लगती है। स्मारक की दीवारों पर दरारें पड़ चुकी हैं, चित्रकृतियाँ झड़ने लगी हैं, छतें टूटने की कगार पर हैं और परिसर में कंटीली झाड़ियाँ उग आई हैं। वह स्थान, जो कभी तुलसी प्रेमियों की आस्था और शोधार्थियों की जिज्ञासा का केंद्र था, अब वीरान पड़ा हुआ है। परिसर में न तो कोई नियमित देखरेख है, न कोई सुरक्षा, और न ही कोई सांस्कृतिक गतिविधि। ऐसा लगता है जैसे इस स्मारक का कोई वारिस ही नहीं बचा हो। तुलसी स्मारक समिति, जिसने कभी इस स्मारक के निर्माण का बीड़ा उठाया था, वह आज न केवल निष्क्रिय हो चुकी है बल्कि उसके पदाधिकारियों का कोई अता-पता नहीं है। वर्षों से कोई बैठक, कोई सार्वजनिक संवाद, कोई प्रयास इस स्मारक को पुनर्जीवित करने के लिए नहीं हुआ।
प्रशासनिक लापरवाही भी इस बदहाली की एक प्रमुख वजह है। राज्य सरकार और पुरातत्व विभाग, जो इस प्रकार की सांस्कृतिक धरोहरों को संरक्षित करने के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं, उन्होंने भी अब तक कोई ठोस पहल नहीं की है। न तो किसी प्रकार की मरम्मत के आदेश दिए गए, न ही बजट आवंटित किया गया और न ही किसी प्रकार की सांस्कृतिक योजना में इस स्मारक को शामिल किया गया। यह उपेक्षा तब और अधिक चुभती है जब हम दूसरी ओर अयोध्या और चित्रकूट में हो रहे भव्य आयोजनों को देखते हैं, जहां करोड़ों की योजनाएं, मीडिया कवरेज और राजनीतिक रैलियां होती हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हाल ही में अयोध्या में दीपोत्सव में भाग लिया और चित्रकूट में धार्मिक कार्यक्रमों में शामिल हुए, लेकिन तुलसीदास की जन्मस्थली राजापुर की ओर एक नज़र तक नहीं डाली। यह विडंबना ही है कि रामकथा के सबसे बड़े गायक के स्मारक को हम भूलते जा रहे हैं, जबकि उन्हीं के शब्दों को राजनीतिक मंचों पर बार-बार उद्धृत किया जाता है।
तुलसीदास केवल एक कवि नहीं थे, वे भारतीय सांस्कृतिक परंपरा के सबसे बड़े पुरोधा थे। उन्होंने संस्कृत के प्रभुत्व वाले साहित्यिक क्षेत्र में जनभाषा को प्रतिष्ठा दिलाई, रामकथा को आमजन के जीवन का हिस्सा बनाया और भक्ति आंदोलन को उसकी नई दिशा दी। उनके लेखन में समाज के हर वर्ग के लिए दिशा थी—नारी, दलित, श्रमिक, किसान, राजा और साधु सभी के लिए तुलसीदास के साहित्य में स्थान था। ऐसी विभूति की स्मृति को सुरक्षित न रख पाना हमारे समाज के लिए एक सांस्कृतिक अपराध के समान है।
आज जब हिंदी को लेकर बड़े-बड़े मंचों से नारे लगते हैं, जब रामचरितमानस को लेकर सियासी बहसें होती हैं, तब यह सवाल उठाना बेहद जरूरी हो जाता है कि क्या हम केवल तुलसी का उपयोग कर रहे हैं? क्या हम उनकी विरासत को केवल भाषणों में जीवित रखना चाहते हैं, या फिर वाकई उनके विचारों, उनके स्थलों और उनकी स्मृतियों को संरक्षित भी करना चाहते हैं? क्या यह जरूरी नहीं कि राजापुर का तुलसी स्मारक एक बार फिर से तुलसी प्रेमियों और शोधार्थियों के लिए जीवंत केंद्र बने?
समाधान असंभव नहीं है, बस संकल्प और समन्वय की आवश्यकता है। सबसे पहले तो यह स्मारक राज्य सरकार द्वारा संरक्षित स्मारक घोषित किया जाना चाहिए। इसके लिए एक विशेष बजट की व्यवस्था की जाए और इसके जीर्णोद्धार का कार्य किसी जिम्मेदार संस्था को सौंपा जाए। साथ ही, एक नई तुलसी स्मारक प्रबंधन समिति का गठन किया जाए जिसमें साहित्यकार, समाजसेवी, प्रशासनिक अधिकारी और स्थानीय जनप्रतिनिधि शामिल हों। स्थानीय स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों को भी इस स्मारक से जोड़ा जाए ताकि छात्रों में तुलसी साहित्य के प्रति रुचि जागृत हो। स्मारक में नियमित शोध संगोष्ठियाँ, रामायण पाठ, सांस्कृतिक समारोह और साहित्यिक व्याख्यान हों, ताकि यह स्थान फिर से सांस्कृतिक ऊर्जा का केंद्र बन सके।
समाज को भी यह जिम्मेदारी लेनी होगी। यह केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है कि वह हर सांस्कृतिक धरोहर को बचाए। स्थानीय नागरिकों, लेखकों, शिक्षकों, पत्रकारों और छात्रों को भी आगे आना होगा। सोशल मीडिया के इस दौर में यदि जागरूकता अभियान चलाया जाए, जनपद स्तर पर संगोष्ठियाँ की जाएं और सरकार पर दबाव बनाया जाए, तो यह स्मारक फिर से संजीवनी पा सकता है। कोई कारण नहीं कि राम की भूमि पर तुलसी की स्मृति मुरझाए।
यह स्मारक केवल ईंट-पत्थर नहीं है, यह हमारे आत्म-संस्कार का प्रतीक है। अगर यह टूटता है, तो हमारी स्मृति, हमारी चेतना और हमारी विरासत का भी एक हिस्सा टूटेगा। आने वाली पीढ़ी हमसे सवाल पूछेगी कि जब हम अपनी आंखों के सामने तुलसी का स्मारक बिखरता देख रहे थे, तब हम चुप क्यों थे। और अगर हम चुप रहे, तो यह चुप्पी केवल राजापुर की नहीं, पूरे हिंदी समाज की हार मानी जाएगी।