चित्रकूट की यात्रा को बना रहे हैं जनचेतना का माध्यम, प्रकति प्रेम और इंसानियत की मिसाल पेश कर रहे हैं
जब पत्रकारिता ब्रेकिंग न्यूज़ से ज़्यादा बेसिक ज़रूरतों को समझने लगे, तब वो कहीं न कहीं जंगल की पगडंडी पर चल रहा होता है। चित्रकूट के इन्हीं बीहड़ों में एक ऐसा ही पत्रकार रोज़ निकलता है बिना माइक, सिर्फ एक थैला और इंसानियत का भाव लेकर। नाम है जुगनू खान। न्यूज़ 24 से जुड़े जुगनू खान की पत्रकारिता स्टूडियो से नहीं, साधुओं की कुटिया से शुरू होती है। पिछले दो सालों से वे नियमित रूप से जंगल के भीतर उन संतों और साधकों के पास जा रहे हैं जिनकी सुध लेने वाला शायद कोई नहीं। हाथ में टॉर्च, थैले में कंबल और दिल में एक ऐसी संवेदना जिसे आज की मुख्यधारा मीडिया ने लंबे समय से भुला दिया है। उनका फेसबुक पेज ‘जल, जंगल और जुगनू’ इस अभियान की एक झलक देता है कभी वे खुद टिक्कड़ सेंकते दिखते हैं, कभी संतों के लिए झोपड़ियाँ जोड़ते हैं, कभी कंधे पर रस्सी-बांस लेकर रंगमंच की संभावनाओं की खोज में जंगलों की खाक छानते हैं। वे कहते हैं, “मैं रोज़ एक नया संत स्थल ढूंढता है, जहाँ कला, संस्कृति और जीवन एक साथ सांस लें। लेकिन यह सफर सिर्फ भावुकता नहीं, बलिदान की सच्ची कहानियाँ भी समेटे हुए है। बड़का पंडित से बातचीत में जुगनू खान ने बताया, “एक बार मैंने मन्दाकिनी नदी की सफाई के लिए एक जुगाड़ मशीन बनाई थी। उसे चलाने के लिए बैटरी चाहिए थी, लेकिन पैसे नहीं थे। तब मैंने अपना मोबाइल फोन बेच दिया… बस इसलिए कि नदी ज़िंदा रह सके।” सोचिए, जहाँ बड़े-बड़े जल संरक्षण अभियान सिर्फ फोटो खिंचवाने तक सीमित हैं, वहीं एक पत्रकार अपनी जेब से नदी के लिए संघर्ष कर रहा है वो भी बिना प्रचार, बिना चर्चा।
अब तक की यात्रा में जुगनू खान को न सिर्फ जंगलों और संतों का आशीर्वाद मिला है, बल्कि समाज और शासन के विभिन्न मंचों से कई अहम सम्मानों से भी नवाज़ा गया है। उन्हें भारतीय खाद्य निगम द्वारा “मृत महोत्सव सम्मान” से सम्मानित किया गया, वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के महाजन जी, मऊ विधायक, और सांसद महोदय द्वारा “पर्यावरण संरक्षण सम्मान” प्रदान किया गया। जल संरक्षण में उनके निरंतर योगदान को देखते हुए उत्तर प्रदेश के जल शक्ति मंत्री स्वतंत्र देव सिंह ने उन्हें “जल योद्धा सम्मान” से नवाज़ा, जबकि “जल भागीरथ सम्मान” उन्हें उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग के अध्यक्ष व स्व. राजू श्रीवास्तव की स्मृति में प्रदान किया गया। इसके साथ ही, सड़क सुरक्षा और सामाजिक चेतना में भूमिका के लिए उन्हें “यातायात जागरूकता सम्मान” सहित अनेक मंचों से सराहना प्राप्त हो चुकी है।
धर्म और पहचान के इस शोरगुल वाले दौर में जब उनसे पूछा गया कि वे खुद को क्या मानते हैं हिंदू या मुसलमान? तो उनका जवाब उतना ही सीधा और स्पष्ट था जितना एक फकीर की नजर न हिंदू, न मुस्लिम… मैं सिर्फ इंसान हूँ। और मेरी पत्रकारिता भी इंसानियत के लिए है। उनकी ख्वाहिश है कि चित्रकूट की संस्कृति, यात्रा, जंगल, संत, संघर्ष और जन-जीवन को लेकर एक ऐसी किताब प्रकाशित हो जो तीर्थ की आड़ में छिपी सच्ची यात्राओं को उजागर करे। न कोई धार्मिक शोर, न राजनीतिक भाषण बस एक इंसान की नज़र से चित्रकूट की आत्मा का दस्तावेज। जुगनू खान की ये यात्रा, ये विचार और ये त्याग सिर्फ एक पत्रकार की कहानी नहीं है। यह उन आवाज़ों की कहानी है जो माइक के बाहर रहकर भी समाज को दिशा दे रही हैं। टॉर्च की वो रोशनी जो साधुओं की झोपड़ी तक पहुंचती है, असल में आज की पत्रकारिता की सबसे बड़ी चमक है। ये खबर नहीं, एक आईना है जो दिखाता है कि सच्ची पत्रकारिता अब भी ज़िंदा है, बस वो एसी स्टूडियो में नहीं, जंगलों की धूल में मिलती है