Thursday, July 10, 2025
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बुन्देलखंड का मसीहा भूला गया , कृष्णा कोल का कुआं ढह गया, प्रशासन मूकदर्शक मट्टी में दफन हो गया जलयोद्धा का सपना, जिसने प्यास बुझाई, उसका नाम तक मिटा दिया गया

बुन्देलखंड की जलविहीन धरती पर अगर कोई व्यक्ति दशरथ मांझी की तरह उभरा तो वह थे चित्रकूट के मानिकपुर विकासखंड गडचपा गा्रम पंचायत अंतर्गत बड़ाहार गांव के निवासी कृष्णा कोल, जिन्होंने अपने गांव की पेयजल समस्या को समाप्त करने के लिए बिना किसी सरकारी सहायता, अकेले दम पर वर्षों की मेहनत से एक कुआं खोदा था। उनका यह प्रयास ना सिर्फ एक उदाहरण था बल्कि ग्रामीणों की प्यास बुझाने का साधन भी बना। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि आज वही कुआं खंडहर बन चुका है और प्रशासन अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ चुका है। जब पहली बार यह खबर मीडिया में आई और कृष्णा कोल की तपस्या का उल्लेख हुआ, तब जिला प्रशासन ने कुछ दिनों के लिए सक्रियता दिखाई, उन्हें सम्मानित किया, प्रेस नोट जारी हुआ, अधिकारियों ने दौरे किए और यह घोषणा की गई कि इस भागीरथ प्रयास को संरक्षित किया जाएगा। लेकिन यह सक्रियता केवल कैमरों और अखबारों तक सीमित रही। न तो कुएं की मरम्मत हुई, न उसकी बाउंड्री बनी, न ही उसे किसी मॉडल योजना से जोड़ा गया। परिणामस्वरूप, समय के साथ यह कुआं ढह गया और अब वहां केवल टूटे पत्थरों और झाड़ियों का ढेर बचा है। इस कुएं के साथ वह सोच, वह भावना, वह संघर्ष भी दफन हो गया जिसे कृष्णा कोल ने अपने जीवन के सबसे मजबूत वर्षों में सींचा था। कृष्णा कोल अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनके अंतिम दिनों में जब उनसे इस प्रयास के बारे में पूछा गया तो वह भावुक होकर बोले “भैया, पूरी मेहनत लगाकर खोदे रहे है. लेकिन अब सब खतम होई गा.।” उनका यह वाक्य केवल उनके जीवन का नहीं, बल्कि उस व्यवस्था का भी शोकगीत है जो अपने असली नायकों को पहचानने और संरक्षित करने में हमेशा असफल रही है। दूसरी ओर, प्रशासन ने श्मेरा छत मेरा पानीश् जैसे अभियानों को खूब प्रचारित किया, वॉल पेंटिंग कराई गईं, भाषण दिए गए और रिपोर्ट तैयार हुईं, लेकिन उन्हीं के जिले में खड़ा एक जीवंत उदाहरण दृ कृष्णा कोल का कुआं दृ उपेक्षा और अनदेखी का शिकार होता रहा। यदि प्रशासन चाहता तो इसे आदर्श जलस्रोत के रूप में विकसित कर सकता था, स्कूलों में इसे अध्ययन का विषय बनाया जा सकता था, जल संरक्षण के राष्ट्रीय अभियान में इसका उल्लेख हो सकता था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वहीं जब बड़ाहार गांव की मौजूदा स्थिति की बात करें तो हालात और भी दयनीय हैं। आज़ादी के 75 वर्षों बाद भी गांव की चौथी पीढ़ी स्कूल का मुँह नहीं देख पाई है। बच्चों में कुपोषण की स्थिति गंभीर है, स्वास्थ्य सेवाओं का कोई नामो निशान नहीं है, गांव में सड़क नहीं है जिससे ग्रामीणों का मुख्यधारा से संपर्क टूट चुका है, सिंचाई की कोई व्यवस्था नहीं है, रोजगार की तलाश में गांव के युवा शहरों की ओर पलायन कर गए हैं और शायद सबसे दुखद बात यह है कि इस गांव में आज तक कोई जनप्रतिनिधि या सरकारी अधिकारी नहीं पहुंचा। गांव वालों ने कभी लेखपाल का चेहरा तक नहीं देखा। पूर्व प्रधान रामेंद्र पांडेय बताते हैं कि उन्होंने अपने कार्यकाल में गांव में सौभाग्य योजना के तहत बिजली पहुंचाई, मनरेगा से कच्ची सड़क बनवाई और आवास उपलब्ध कराने की प्रक्रिया शुरू की, लेकिन बाकी योजनाएं अधिकारियों की उदासीनता की भेंट चढ़ गईं। उन्होंने भी माना कि कृष्णा कोल को सरकारी इनाम और सम्मान मिलना चाहिए था, और यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनका वर्षों का प्रयास, वह कुआं, बिना संरक्षण के नष्ट हो गया। यह सवाल प्रशासन से है, समाज से है और हम सब से है कि क्या हम ऐसे नायकों को भूल जाने के लिए अभिशप्त हैं जिन्होंने बिना किसी लालच के समाज के लिए काम किया? क्या सरकारें केवल योजनाओं का प्रचार करेंगी, या कभी ज़मीनी स्तर पर काम करने वालों को भी संरक्षित करेंगी? क्या हम केवल वोट के समय गांवों में जाएंगे या कभी इनके विकास पर गंभीरता से काम करेंगे? कृष्णा कोल जैसे लोग विरले होते हैं, लेकिन अगर उनका संघर्ष भी संरक्षित न किया जा सके, तो फिर विकास शब्द भी खोखला ही प्रतीत होता है। कृष्णा कोल की स्मृति को बचाना, उनके कुएं को संरक्षित करना अब सिर्फ प्रशासनिक कर्तव्य नहीं बल्कि नैतिक जिम्मेदारी बन चुकी है, क्योंकि जो व्यक्ति अपने हाथों से गांव की प्यास बुझा सकता है, उसका योगदान इतिहास में दर्ज होना चाहिए, न कि मिट्टी में दबा दिया जाए।

 

C P Dwivedi
C P Dwivedihttps://sarasbhavna.com
लेखक परिचय : चन्द्र प्रकाश द्विवेदी, चित्रकूट निवासी एक सक्रिय पत्रकार, लेखक, शिक्षाविद् और सामाजिक विचारक हैं, जो पिछले दो दशकों से हिंदी साप्ताहिक समाचार पत्र ‘सरस भावना’ के संपादक के रूप में जनपक्षीय पत्रकारिता कर रहे हैं। उन्होंने पत्रकारिता की शुरुआत विभिन्न प्रतिष्ठित समाचार संस्थानों से की और अपने लेखन तथा संपादन कौशल से बुंदेलखंड की पत्रकारिता को नई दिशा दी। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर (M.A.), कंप्यूटर साइंस में मास्टर डिग्री (M.Sc. CS), सामाजिक कार्य में स्नातकोत्तर (MSW), पत्रकारिता एवं जनसंचार में डिग्री, और क़ानूनी ज्ञान में स्नातक (L.L.B.) की शिक्षा प्राप्त की है। वे एक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी हैं — एक संवेदनशील पत्रकार, प्रतिबद्ध समाजसेवी, करियर काउंसलर, राजनीतिक विश्लेषक, अधिवक्ता और व्यंग्यकार। वे शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि परिवर्तन और ग्रामीण विकास जैसे जनहित से जुड़े विषयों पर निरंतर काम कर रहे हैं। वर्तमान में वे बुंदेली प्रेस क्लब के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और सरकार से मान्यता प्राप्त वरिष्ठ पत्रकारों में शुमार हैं। लेखन नाम बड़का पंडित‘’ के नाम से वे राजनीतिक पाखंड, जातिवाद, दिखावटी विकास, मीडिया के पतन और सामाजिक विडंबनाओं पर तीखे, मगर प्रभावशाली व्यंग्य लिखते हैं, जो समाज को सोचने और बदलाव के लिए प्रेरित करते हैं। उनकी लेखनी न सिर्फ व्यंग्य का माध्यम है, बल्कि बुंदेलखंड की पीड़ा, चेतना और संघर्ष की आवाज़ भी हैऔर शिक्षा, स्वास्थ्य व ग्रामीण विकास जैसे क्षेत्रों में सक्रिय रूप से कार्यरत हैं।
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