खण्डेहा(चित्रकूट)।
खण्डेहा क्षेत्र से ही गांव की चौपालो पर भरत पटेल का नाम लिया गया, चाय की भट्ठियों से उठती भाप और कानाफूसी की फुसफुसाहट एक सुर में गूंज उठी – “अबकी बार भरत भैया तय हैं!” खंडेहा और उसके आसपास की राजनीति में जो गतिशीलता इन दिनों देखने को मिल रही है, वह किसी चुनावी लहर से कम नहीं। भरत पटेल, जो पिछली बार महज़ चंद वोटों से हारकर ‘राजनीति का गंभीर छात्र’ कहलाने लगे थे, अबकी बार पूरी तैयारी, सोशल इंजीनियरिंग, और चौपाल-स्तरीय रणनीति के साथ मैदान में हैं।
सूत्रों की मानें तो भरत पटेल को इस बार गांव के कथित बुद्धिजीवी वर्ग से लेकर गुपचुप तरीके से नवयुवक मोर्चा तक का खुला समर्थन प्राप्त है। उनकी रणनीति का केंद्र बिंदु है – “घर-घर पर्चा, हर गली में चर्चा, और हर बैठक में भरत की महिमा वर्चा।” लोगों में एक स्पष्ट विश्वास दिख रहा है कि अबकी बार भरत पटेल न केवल जीतेंगे, बल्कि पंचायती राजनीति में ‘पंडितों का पंडित’ बनकर उभरेंगे।
राजनीतिक पटल पर एक संयमी योद्धा की वापसी।
यदि भरत पटेल के बीते पांच वर्षों का विश्लेषण करें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वह सिर्फ एक चुनावी प्रत्याशी नहीं, बल्कि ‘पराजय से परिष्कृत’ नेता बन चुके हैं। हार के बाद उन्होंने जो चुप्पी साधी, वह रणनीतिक मौन था – जिसे गांव के कई बुजुर्गों ने ‘महात्मा गांधी की अहिंसात्मक चुप्पी’ की उपाधि तक दे डाली। बीच के वर्षों में उन्होंने ना कोई विवादित बयान दिया, ना किसी पंचायत बैठक में बेमतलब की टिप्पणी – बस, एक मूक भाव से हर शादी, संस्कार और शोकसभा में उपस्थित रहे, जिससे उनका ‘सामाजिक समरसता का प्रतीक’ बनना तय हो गया।
अप्रैल 2025 में जब उन्होंने घोषणा की कि वे फिर से चुनाव लड़ेंगे, तो गांव की राजनीति में भूचाल आ गया। जिन समर्थकों ने पहले दाल-भात खाकर विरोधी को जिताया था, वे भी अब “पछतावा-पत्र” लेकर भरत पटेल के द्वार पर खड़े मिले। स्थानीय युवाओं ने व्हाट्सएप ग्रुप “पटेल सेना 2025” बना डाला और हर चुनावी चर्चा में यह तय हो गया – अबकी बार ‘पिछली गलती’ नहीं दोहराई जाएगी।
जातिगत गणित और विकास की जुगलबंदी।
खंडेहा की राजनीति का सबसे दिलचस्प पहलू है – इसका परंपरागत जातीय समीकरण। मगर भरत पटेल इस समीकरण को ‘जोड़-घटाने’ के बजाय ‘गुणा-भाग’ की शैली में देखते हैं। पिछली बार उन्हें पटेल, चर्मकार और कोरी समाज का मजबूत समर्थन मिला था, पर ब्राह्मण और यादव वोटों में सेंधमारी ने चुनाव पलट दिया। इस बार उन्होंने न केवल “ब्राह्मण भोज” आयोजित किया, बल्कि यादव टोले में जाकर ‘गोपाष्टमी’ पर दही-चूड़ा खाया, और दलित बस्तियों में “चप्पल वितरण अभियान” चलाकर सर्वसमाज का नेता बनने की ओर कदम बढ़ाया।
उनका चुनावी घोषणापत्र भी चर्चा में है – जिसमें लिखा है, “मैं खंडेहा को शिक्षा, सड़क और सच्चाई दूंगा – बाकी कमी आपके सहयोग से पूरी होगी।” इसके साथ उन्होंने ग्रामीण खेल महोत्सव में ‘गिल्ली-डंडा’ प्रतियोगिता प्रायोजित की, और लड़कियों को आत्मरक्षा की ट्रेनिंग दिलवाई। परिणामस्वरूप महिलाएं, जो पहले मतदान में ‘जो घर का कहे वही करें’ वाली स्थिति में थीं, अब खुद ‘भरत भैया’ के लिए प्रचार कर रही हैं। यह परिवर्तन केवल व्यक्तिगत छवि का नहीं, बल्कि पंचायत राजनीति की बदली धारा का प्रतीक माना जा रहा है।
विपक्षी खेमे में बेचैनी, समर्थकों में उत्साह।
भरत पटेल की बढ़ती लोकप्रियता से उनके विरोधी खेमे में घबराहट साफ देखी जा सकती है। वहीं भरत पटेल ने एक नई रणनीति अपनाई है – वे अब हर शाम पंचायत भवन के पास ‘जन चौपाल’ लगाते हैं, जहां समस्याएं सुनी जाती हैं, और उसी शाम फेसबुक लाइव पर समाधान की घोषणा की जाती है। उनकी यह शैली युवाओं और बुजुर्गों दोनों को भा रही है। बूढ़ी अम्मा से लेकर गुस्सैल ताऊ तक अब कहने लगे हैं – “ये लड़का अब नेता नहीं, नेता का बाप हो गया है!” गांव के एक ठेठ समीक्षक की मानें तो, “अबकी बार अगर भरत न जीते, तो जनता ही हार जाएगी।”ष्क
खंडेहा की राजनीति में इस बार नारा नहीं, चरित्र काम कर रहा है। भरत पटेल की चुप्पी, संयम, और रणनीति ने उन्हें सिर्फ प्रत्याशी नहीं, संभावित विजेता बना दिया है। अगर समर्थन की यही लहर चली, तो यह चुनाव नहीं, ‘सम्मान समारोह’ होगा – जिसमें खंडेहा के लोग एक बार फिर से खुद को ही जीतते देखेंगे – भरत पटेल के माध्यम से।
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